
जब हम डॉ. मनमोहन सिंह की काबिलियत की बात करते हैं, तो कोई दो राय नहीं हो सकती। उन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था को खोलने का जो कदम उठाया, वह न केवल भारतीय इतिहास में बल्कि वैश्विक स्तर पर भी एक मील का पत्थर साबित हुआ।
इस “उदारीकरण” के बारे में आम जनता शायद उतना न समझ पाए, लेकिन इसका प्रभाव पूरी दुनिया में महसूस किया गया। 1991 के आर्थिक सुधारों की नींव रखी थी डॉ. सिंह और प्रधानमंत्री स्व. श्री पी.वी. नरसिंह राव ने। उस समय के आर्थिक हालात बेहद खराब थे। भारत में विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए कई सेक्टरों में छूट दी गई, जो पहले सरकारी नियंत्रण में थे। 1991 से पहले, सरकार ने ही कई प्रमुख सेक्टरों जैसे टेलीफोन सेवा, बीमा, बैंकिंग आदि को नियंत्रित किया था। 1969 में इंदिरा गांधी द्वारा निजी बैंकों को राष्ट्रीयकरण करने के बाद, भारत का अधिकांश वित्तीय और बैंकिंग क्षेत्र सरकारी हाथों में था। लेकिन 1991 के बाद धीरे-धीरे इन सेक्टरों में निजीकरण की शुरुआत हुई।
यह सब क्यों किया गया?
दरअसल, भारत के पिछले कई सालों के वित्तीय संकट ने देश को आर्थिक रूप से गर्त में धकेल दिया था। “सोना गिरवी रखने” का कांड एक प्रमुख घटना थी, जिसने देश की आर्थिक स्थिति की गंभीरता को उजागर किया। भारत को विदेशों से सामान आयात करने के लिए विदेशी मुद्रा की आवश्यकता थी, लेकिन केवल 1 अरब डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार के साथ भारत की स्थिति बेहद नाजुक हो चुकी थी। उस समय यह अनुमान था कि भारत को 10 अरब डॉलर की आवश्यकता थी ताकि आयात जारी रह सके, खासकर पेट्रोलियम उत्पादों के लिए।
जब विदेशी मुद्रा खत्म हो गई और पेट्रोलियम संकट ने पूरी अर्थव्यवस्था को जकड़ लिया, तो स्थिति और भी गंभीर हो गई। उत्पादन ठप होने, कारखाने बंद होने और रोजगार समाप्त होने से मंदी का दौर शुरू हुआ। यह वह समय था, जब डॉ. मनमोहन सिंह और पी.वी. नरसिंह राव को एक ठोस कदम उठाने की आवश्यकता थी।
क्या किया गया?
डॉ. मनमोहन सिंह ने IMF के दबाव में नहीं, बल्कि अपने ज्ञान और सूझबूझ के आधार पर भारतीय अर्थव्यवस्था को खोला। उन्होंने देश में विदेशी निवेशकों के लिए दरवाजे खोले और यह साबित किया कि भारत, तमाम समस्याओं के बावजूद, निवेश के लिए एक आकर्षक जगह हो सकता है। इसके परिणामस्वरूप, भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार की शुरुआत हुई और धीरे-धीरे स्थिति बेहतर होती चली गई।
कुछ लोग आज भी कहते हैं कि IMF के दबाव में ही डॉ. सिंह ने ये सुधार किए, लेकिन यह धारणा गलत है। IMF केवल सलाह दे सकता था, लेकिन निर्णय भारतीय नेताओं का था। डॉ. सिंह और राव साहब ने अपनी राजनीतिक समझ और आर्थिक सोच से निर्णय लिए, जो आज भी भारत की अर्थव्यवस्था को संजीवनी दे रहे हैं।
कांग्रेस का निर्णय और डॉ. सिंह की भूमिका
कांग्रेस ने डॉ. मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री के रूप में चुनकर एक अच्छा निर्णय लिया था। उनका शांत स्वभाव और गैर-राजनीतिक दृष्टिकोण उन्हें इस भारी कार्य के लिए उपयुक्त बनाता था। हालांकि, राजनीतिक दलों के गठबंधन और उनके दुराचार के कारण सरकार को कई समस्याओं का सामना करना पड़ा। लेकिन डॉ. सिंह ने अपनी शांति और सूझबूझ से अर्थव्यवस्था को संभाला।
डॉ. सिंह का कार्यकाल 2004 से 2014 तक भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण काल था। हालांकि, इस दौरान कई घोटाले हुए, लेकिन यह उनके कार्यकाल की आलोचना का विषय नहीं बनना चाहिए। वे केवल प्रधानमंत्री थे और सरकार के भीतर अन्य दलों और उनके मंत्रियों के घोटालों पर उनका नियंत्रण सीमित था।
डॉ. सिंह की विनम्रता
डॉ. मनमोहन सिंह खुद कहते थे, “उम्मीद है कि इतिहास मेरे प्रति सहिष्णु रहेगा।” यह उनकी विनम्रता और सच्चाई का प्रतीक था। उन्होंने पूरी ईमानदारी और निष्ठा से भारतीय अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए काम किया। जब वे प्रधानमंत्री बने, तो उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। लेकिन इसके बावजूद उन्होंने मनरेगा, शिक्षा का अधिकार और अन्य कई महत्वपूर्ण योजनाओं को लागू किया।
समाप्ति पर
डॉ. मनमोहन सिंह ने अपनी पूरी कुशलता और ज्ञान से भारत की अर्थव्यवस्था को संभाला। उन्होंने इस कठिन समय में सही दिशा में कदम उठाए और भारत को संकट से उबारा। उनके द्वारा किए गए आर्थिक सुधार भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था के इतिहास में हमेशा याद किए जाएंगे।
उनकी ईमानदारी, साहस और दूरदर्शिता का आदर हम सभी को करना चाहिए, क्योंकि उन्हीं के कारण आज हम एक स्थिर और मजबूत भारतीय अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं।
अगली कड़ी में हम उनके आर्थिक सुधारों पर और विस्तार से चर्चा करेंगे।